कुछ मैँ केह्ता कुछ मैँ सुनता कुछ अपने लब्ज़ोँ मैँ बुनता, कुछ बातेँ जो छुप जाती हैँ, कुछ जो केह कर कर भी जाता। स्याही से सब छलक के आते, फ़िर भ ी बचते तो दिल पर रखता, वो जो आँखो से है दिख ता, उनको मैँ किस कलम से लिख ता। सुनने वालोँ की खिद मत मेँ, कुछ अल्फ़ाज़ ये जोडे हैँ, न इन्होने तख्ते पलटे, न तक्दीरों के रुख मोडे हैँ। हर कि सी का इन पर हक है, मेरे हिस्से के थोडे हैँ. किस से पूछूँ कौन सा मेरा, जिस का उस पर ही छोडे हैँ।